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सर्वविदित तथ्य है कि भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद देश को स्वतंत्र कराकर हिन्दुस्तान में गणतांत्रिक समाजवादी समाज की स्थापना करना चाहते थे। अपने इसी पवित्र लक्ष्य के लिए 7-8 सितम्बर 1928 को ऐतिहासिक फिरोजशाह कोटला किले के खण्डहरों में गठित हिन्दुस्तान समाजवादी गणतांत्रिक संघ के वे संस्थापक अध्यक्ष बने थे। आजाद और उनके क्रांतिधर्मी सहयोगी यथा भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव, राजगुरू, मन्मथनाथ गुप्त, डा0 भगवान दास माहौर, विश्वनाथ वैशम्पायन कोरे क्रांतिकारी नहीं अपितु काफी मननशील स्वाध्यायी प्रवृत्ति के थे। दुर्भाग्य है कि आजाद व उनके साथियों के बलिदान व जीवन-गाथा की चर्चा तो पर्याप्त हुई किन्तु उनकी वैचारिकी व जीवन-दर्शन पर बहस न के बराबर होती है। नई पीढ़ी आजाद, भगत, पंडित, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, डा0 लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश सदृश राष्ट्रनायकों का नाम भलीभांति जानते हुए भी इनकी समाजवादी अवधारणा से अवगत नहीं है। आजाद व हिन्दुस्तान समाजवादी गणतांत्रिक संघ के सेनानियों के सोच के अनुरूप यदि भारत में विकेन्द्रीकरण पर आधारित श्रेणीविहीन गणतांत्रिक समाजवादी राजव्यवस्था अपनाया गया होता तो देश की तस्वीर आज काफी अलग व बेहतर होती। भारत समग्र मानवीय विकास में 129 देशों और प्रतिव्यक्ति आय के दृष्टिकोण से 140 देशों से पीछे न होता। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जड़ नौकरशाही, आर्थिक विषमता, साम्प्रदायिकता, गरीबी जैसी राष्ट्रीय समस्यायें उसी तरह देश के समक्ष चुनौती की भांति खड़ी न होतीं जिस तरह आजाद के दौर में थी। स्वतंत्रता, समाजवाद, स्वराज्य, सर्वोदय, समावेशी विकास, आदर्शवादी गणतंत्र जैसे लोकजीवन के शब्द अपने अर्थ को तलाशते हुए और भटकाव के मोड़ पर खड़े दिख रहे हैं। विदेशी व देशी पूंजीपतियों का गठजोड़ भारत के अर्थतंत्र को पूरी तरह केन्द्रित व खोखला कर रहा है। कोरोना-संकट ने देश के विकास की कलई पूरी तरह खोल कर रख दिया है। देश पहले ही युवाओं को योग्यतानुसार रोजगार देने में असमर्थ था, कोरोना-काल में जो अतिरिक्त बेरोजगार हुए उनकी सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा की गारण्टी वर्तमान निजाम नहीं ले पाया। समुचित चिकित्सा की व्यवस्था नहीं हो पाई। पंद्रह अगस्त 1947 को देश केवल ब्रिटानिया हुकूमत के उपनिवेशवाद के चंगुल से ही स्वतंत्र हुआ, असली आजादी जिसे लोकमान्य तिलक ‘‘स्वराज्य’’ व आजाद ‘‘समाजवाद’’ कहते थे, अभी पूरी तरह नहीं आ सकी है।

चंद्रशेखर आजाद की जयंती के उपलक्ष्य में उनके वैचारिक पक्ष व प्रतिबद्धता का विहंगावलोकन समीचीन होगा। तरुण अवस्था में ही आजादी की लड़ाई में कूद पड़ने के कारण भले ही चंद्रशेखर की विश्वविद्यालयीय पढ़ाई नहीं हो सकी लेकिन स्वाध्याय एवं समकालीन विद्वान क्रांतिकारियों, लेखकों व नेताओं से संवाद से उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमता को काफी परिमार्जित किया और स्वयं को उस मुकाम पर लाया जहाँ भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, शिववर्मा, माहौर व वैशम्पायन जैसे बहुपठित क्रांतिकारी अपना नेता व मार्गदर्शक मानते के लिए सहर्ष राजी हुए। आजाद को केवल माउजरधारी बहादुर शहीद मानना, उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं को नजरअंदाज और उन्हें संकुचित करना है। वे काशी में पढ़कर विद्वान बनना चाहते थे। उनकी ज्ञान-पिपाशा व सीखने के प्रति मनोयोग को देखकर ही ‘आज’ के संस्थापक बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने विद्यापीठ में पढ़ाई करने के लिए वजीफा देना स्वीकारा था। शचींद्रनाथ सान्याल की पुस्तक ‘‘बंदी जीवन’’ उनकी प्रिय किताब थी। ‘‘अमेरिका को आजादी कैसे मिली’’ पुस्तक मंगाकर वे स्वयं पढ़े व अन्य साथियों को पढ़ने के लिए दिया। ‘‘भागवत गीता’’ पर उनकी गहरी पकड़ थी, जिसका लाभ उन्होंने भूमिगत जीवन में पुजारी बनकर उठाया। आई0जी0 कॉलिन्स के अनुसार उन्हें मार्क्स व एंजिल्स की भी अच्छी जानकारी थी। उनके थैले में तमंचे के साथ-साथ कोई न कोई पुस्तक व अखबार की प्रति जरूर होती थी। भारतरत्न भगवान दास तथा श्री प्रकाश से उनका लगाव पढ़ाई-लिखाई के कारण ही था। चंद्रशेखर को ‘‘आजाद’’ उपनाम लोहिया व आचार्य नरेन्द्रदेव के समविचारी साथी श्री प्रकाश ने दिया था। संदर्भवश मन्मथनाथ गुप्त का यह कथन उल्लेख्य है, ‘‘अवश्य चन्द्रशेखर आजाद कम पढ़े-लिखे केवल स्कूल-कॉलेज की दृष्टि से ही थे, पर उनमें पढ़ी हुई पुस्तकों का सार ग्रहण करने की बहुत बड़ी शक्ति थी। इसके अलावा वह शुरू से लेकर हमेशा ऐसे सुगठित क्रांतिकारियों के साथ रहे, जो बड़े विद्वान होने के साथ-साथ ही दिन-भर सैद्धान्तिक तर्क करते रहते थे।’’

आजाद ने स्वतंत्रता व समाजवाद को भारतीय तरुणाई का रोमानी स्वप्न बना दिया। पंडित नेहरू से उनका ‘‘फासिस्ट वाद’’ पर किया गया संवाद भारतीय इतिहास का संग्रहणीय दस्तावेज है। आजाद का समाजवाद विशुद्ध भारतीय लोकजीवन की आकांक्षाओं एवं स्वदेशी मूल्यों पर आधारित था। आजाद ने नौकरशाही व पूँजीवाद को लेकर जो शंकायें व्यक्त की थीं, वे कालान्तर सही साबित हुईं। आजाद-भगत के समाजवाद रूपी स्वप्न को आगे चलकर लोहिया-जेपी ने सिद्धान्त के रूप में ढाला और लोकजीवन का अंग बनाया

भारत के ऊपर लगभग 563.9 अरब का कर्ज है। चीन के उपनिवेशवादी कृत्यों से यदा-कदा भारत को चोट मिलती रहती है। सामरिक व आर्थिक मोर्चे पर भारत को आजाद-लोहिया के समाजवाद पर आधारित नीति बनाकर दृढ़तापूर्वक लागू कराना समय की माँग है। चंद्रशेखर आजाद के बारे में नई पीढ़ी को समग्र रूप से बताना होगा ताकि आजाद हिन्दुस्तान में आजाद के साथ हुए अन्याय की भरपाई हो सके। हमें स्वीकार करने में जरा भी हिचक नहीं होना चाहिए कि आजाद भारत में आजाद के साथ अन्याय किया गया, एक तो उनके व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से दर्शाया नहीं गया, दूसरे उनकी वैचारिकी अर्थात गणतांत्रिक समाजवाद पर भी उस तरह चर्चा नहीं की गई जिस तरह करना चाहिए था। अब यह काम हमें करना होगा। हमें आजाद के सपनों व समाजवाद को समक्ष रखकर आगे बढ़ना होगा। आजाद की स्मृतियों से भारत सदैव त्याग, बलिदान, परोपकार, आत्मोसर्ग व समाजवाद लेता रहेगा।

(लेखक बौद्धिक सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष है)