आज ही के पवित्र दिन १९०७ में भारतीय क्रांतिधर्मिता व समाजवादी सोच के प्रकाश स्तम्भ भगत सिंह का जन्म दिन हुआ था और सर्वविदित है कि 23 मार्च, 1931 को सात बजकर 33 मिनट पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन के सूत्रधार भगत सिंह ने देश रक्षा के लिए अपने प्राणों को त्याग दिया था, इसी तिथि को 1910 में क्रांतिधर्मी व चिंतक राममनोहर लोहिया ने गांधीवादी हीरालाल और चंदा देवी के घर में पुत्र के रूप में जन्म लिया था। इन दोनों महापुरुषों के व्यक्तित्व, कार्य-प्रणाली, सोच एवं जीवन-दर्शन में कई समानताएं दृष्टिगत हैं। दोनों का सैद्धान्तिक लक्ष्य एक ऐसे शोषणविहीन, समतामूलक समाजवादी समाज की स्थापना का था जिसमें कोई व्यक्ति किसी का शोषण न कर सके और किसी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा अमानवीय विभेद न हो। लोहिया, भगत सिंह को अपना आदर्श मानते थे, जब उन्हें फांसी हुई तो लोहिया न इसका प्रतिकार लीग ऑफ नेशन्स की जेनेवा बैठक के दौरान सत्याग्रह कर किया था। भगत की शहादत के कारण ही लोहिया 23 मार्च को अपना जन्म दिन मनाने से अनुयायियों को मना करते थे। भगत सिंह व लोहिया दोनों मूलतः चिंतनशील और पुस्तकों के प्रेमी थे। भगत सिंह ने जहां चन्दशेखर आजाद की अगुवाई में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन का गठन किया था, वहीं लोहिया ने आचार्य जी की अगुवाई में 1934 में गठित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पार्टी के सूत्रधार बने। दोनों ने समाजवाद की व्याख्या स्वयं को प्रतिबद्ध समाजवादी घोषित करते हुए किया। दोनों अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए छोटी पुस्तिकाओं, पर्चे, परिपत्रों एवं अखबारों में लेखों के प्रकाशन का प्रयोग करते थे। भगत सिंह ने कुछ समय पत्रकारिता भी की। वे लाहौर से निकलने वाली पत्रिका दि पीपुल, कीरती, प्रताप, मतवाला, महारथी, चांद जैसी पत्र पत्रिकाओं से जुड़े रहे और अपने विचारों से लोगों का अवगत कराने के लिए इन पत्र-पत्रिकाओं में अग्रलेख लिखते रहे। भगत ने बलवंत व विद्रोही के नाम से ‘अकाली’ व ‘कीरती’ पत्रिका का सम्पादन किया। इन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए लोहिया ने भी जनमत बनाने के लिए कांग्रेस सोशलिस्ट, कृषक, इंकलाब जन, ‘चौखम्भाराज’ और ‘मैनकाइंड’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन व सम्पादन किया। भगत सिंह ने आत्मकथा, समाजवादी का आदर्श, भारत में क्रांतिकारी आंदोलन, मृत्यु के द्वार पर जैसी पुस्तकें लिखीं तो लोहिया ने इतिहास-चक्र, अर्थशास्त्र-मार्क्स के आगे, भारत में समाजवादी आंदोलन, ‘भारत विभाजन के अपराधी’ जैसी अनेक पुस्तकों को लिखकर भारतीय मनीषा का मजबूत किया। लोहिया और भगत दोनों के प्रिय लेखकों की सूची भी यदि बनाई जाए तो बर्टेड रसल, हालकेन, टालस्टॉय, विक्टर, ह्यूगो, जॉर्ज बनार्ड शॉ व बुखारिन जैसे नाम दोनों की सूची में मिलेंगे। भगत सिंह व लोहिया दोनों को गंगा से विशेष लगाव था। शिव वर्मा ने लिखा है कि पढ़ाई-लिखाई से तबीयत ऊबने पर भगत सिंह अक्सर छात्रावास के पीछे बहने वाली गंगा नदी के किनारे जाकर घन्टों बैठा करते थे, लोहिया ने अपने जीवन का बहुत समय गंगा तट पर बिताया है। लोकबंधु राजनारायण के अनुसार जब लोहिया गंगा की गोद में जाते थे तो सब कुछ भूल जाते थे। दोनों अपने को नास्तिक कहते थे लेकिन अपनी बातों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए धार्मिक तथा पौराणिक नायकों एवं इनसे जुड़े कथानकों का जमकर इस्तेमाल करते थे। दोनों रसगुल्ले और सिगरेट के शौकीन थे, फर्क इतना था कि लोहिया ‘999-मार्का’ पसंद करते थे तो भगत सिंह ‘क्रेवेन-ए’। दोनों की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। दोनों कोमल और कवि हृदय भी थे, दोनों नाटक एवं सिनेमा के शौकीन थे। भगत सिंह का ‘नाइंटी थ्री’ पसंदीदा नाटक था। रमा मित्रा के शब्दों में लोहिया को जब भी समय मिलता तो अम्पायर थियेटर में अंग्रेजी सिनेमा और मदन थियेटर्स व एलिफिंस्टन में जाकर नाटकों को लुफ्त उठाते थे। नारी के प्रति दोनों के विचार एक जैसे थे। भगत सिंह ने अपने लेखों में नारी को सामाजिक तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने की अपील की तो लोहिया न ‘सीताराम राज्य’ व ‘पंचम वर्ण’ की अवधारणा देते हुए सत्याग्रहों में नारियों को नेतृत्व देने की खुली पैरवी की है। दोनों साम्राज्यवाद के घोर विरोधी थी। 1942 से लेकर 1944 के मध्य भूमिगत जीवन के दौरान लोहिया ने आजाद दस्ता का गठन किया और स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए उसी गोरिल्ला नीति का अनुसरण किया, जिसके लिए भगत सिंह का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
दोनों जीवन-पर्यन्त अविवाहित और फक्कड़ रहे। जब भगत सिंह के पिता ने भगत सिंह की शादी तय करने की बात कही तो भगत सिंह भागकर बनारस चले गये और लोहिया जी को देखने जब भी वधू पक्ष के लोग आते थे तो लोहिया जी चश्मा उतारकर अंधे होने का नाटक करते थे और लड़की के पिता स्वयं ही शादी से मुकर जाते थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि जर्मनी से लौटने के बाद कुछ समय लोहिया जी ने जमुनालाल बजाज के यहां प्रबंधक के रूप में काम किया है। जमुनालाल जी ने अपनी पुत्री का विवाह लोहिया जी से करने की बात चलाई। जैसे ही यह बात लोहिया जी को पता चली, तो रातो-रात जमुनालाल बजाज की सुख सुविधाओं से परिपूर्ण नौकरी छोड़कर अर्न्तध्यान हो गए। दोनों अप्रतिम योद्धा थे, सामा्राज्यवाद से लड़ने वालों की जमात में दोनों का नाम बहुत प्रतिष्ठित है।
जिस जेल में भगत सिंह को ब्रिटानिया हुकूमत ने रखा था उसी कारागार में लोहिया भी रखे गये थे। दोनों को प्रताडि़त करने वाले अधिकांश अधिकारी एक ही थे। दोनों की सोच ही नहीं बल्कि दोनों के दुर्भाग्य भी एक जैसे थे। दोनों अपने पिता से बहुत प्यार करते थे, लेकिन दोनों का दुर्भाग्य रहा कि दोनों अपने पिता का अंतिम संस्कार नहीं कर पाए। भगत सिंह के पिता का देहान्त उनके फांसी लगने के बाद हुआ, और लोहिया के पिता का जब देहांत हुआ तब लोहिया जेल में थे और अपने पिता को अंतिम प्रणाम करने नहीं आ पाए। दोनों भारतीय भाषाओं को प्रबल समर्थक थे। दोनों साम्प्रदायिकता को गुलामी के बराबर ही खतरनाक और त्याज्य मानते थे। दोनों महात्मा गांधी का बेहद सम्मान करते थे लेकिन जब भी उन्हें गांधीजी की कोई बात बुरी लगी तो खुलकर खंडन किया और प्रतिकार स्वरूप लेख लिखे। दोनों अन्याय पर आधारित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के हिमायती थे। वर्ण एवं नस्ल-भेद के विरुद्ध लाहिया ने अमेरिका में जमकर सत्याग्रह किया, उसके इस सत्याग्रह के पीछे वही वैचारिक पृष्ठभूमि है जो भगत सिंह के लेख ‘विश्व-प्रेम’ में प्रतिबिम्बित होता है, जिसमें शहीद-ए-आजम ने ऐसे अमरीकी समाज की परिकल्पना की है, जिसमें काले लोगों को काई जला न सके। अनैसर्गिक व अमानवीय विभेद की इन्हीं दीवारों को गिराने तथा मानसिक खाई को पाटने के लिए लोहिया भी सदैव संघर्षरत रहै। वे एक ऐसी दुनिया की स्वप्नद्रष्टा थे, जिसमें पासपोर्ट की आवश्यकता न हो, उन्मुक्त आवागमन हो। यदि भगत सिंह व लोहिया की वैचारिक साम्य और कार्य-प्रणालीगत सादृश्यताआें का वर्णन सविस्तार किया जाय तो सैकड़ों पन्नों का मोटा ग्रंथ तयार हो जायेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि भगत सिंह और लोहिया में काफी समानताएं थीं। एक ही कालखंड में जन्म लेने और समवय होने के कारण भी समानता स्वाभाविक है। दोनों ने समाजवाद का सपना देखा, इस सपने को पूरा करने के लिए समाजवादी शीर्षक से संगठन बनाए और जीवन-पर्यन्त मानवता की सेवा करते हुए अनन्त यात्रा पर चले गये।
(लेखक प्रगतिशील समाजवादी बौद्धिक सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)