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करो या मरो (Do or die),"अंग्रेजों भारत छोड़ो "!1942 के निर्णायक आंदोलन की शुरुआत भले ही महात्मा के नेतृत्व में शुरू हुई मगर इस आंदोलन के प्रथम पंक्ति तो "कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी"ने ही अपने हाथों में लेकर अंतिम युद्ध लड़ना शुरू कर दिया ।

" यूसुफ मेहर अली का यलगार :-अंग्रेजों भारत छोड़ो " यह तो तय था कि अब नहीं तो कभी नहीं ,।रातों रात जब महात्मा और बाकी नरमपंथियों की गिरफ्तारी हो गयी। डॉ लोहिया बाहर रह गए थे । जयप्रकाश नारायण कुछ महीने पहले से ही जेल में कैद थे । लोहिया जी का संदेश कि आप बाहर निकलिये । संदेश पर जेल में बाहर निकलने की रणनीति तैयार होने लगी । श्री रामबृक्ष बेनीपुरी रणनीतिकार बने। इस पलायन कांड का नेता कौन ? बकौल बेनीपुरी जी "इस पलायन कांड के नेता तो श्री योगेंद्र शुक्लजी थे ही -बिहार के शेर ,बिहार के प्रथम क्रांतिकारी,जिनके एक ललकार से ही कितनों की धोतियाँ ढीली पड़ जाएं।फिर सूरज नारायण सिंह ,क्षत्रित्व जीवंत के प्रतीक,बहादुर ,जां निसार ,गुलाबी -गुलाब चंद-मोलनिया केस का नायक ,दृड़ निश्चयी ,वफ़ादार , रामनन्दन मिश्र जैसा दानवीर ,अभी उड़ीसा से हजारीबाग आये ,उन्होंने भी जाने की उत्सुकता प्रकट की और साथी शालिग्राम सिंन्ह । भले ही अगस्त क्रांति के अग्रदूत -कांग्रेस ब्रेन , महानायक जयप्रकाश नारायण रहे । आदरणीय योगेंद्र शुक्ल जी के दो दुस्साहिक मुकाम को भूलना तो देश की इज्जत से खिलवाड़ मानूंगा ।जयप्रकाश नारायण और साथियों का तो हजारीबाग जेल से पलायन तो इतिहासके पन्नो में दर्ज हो गया। अफसोस कि डॉ लोहिया और जयप्रकाश जी को नेपाल के हनुमान नगर में जान की बाज़ी लगा कर ,सूरज नारायण सिंह और अपने 30 हथियार बन्द साथियों के साथ बंदूक के बल पर ,धावा देकर ,अपने साथियों "नेपाल के कैदखाने से "गोलियों की बौछाड से निपटते हुए ,वापस भारत की भूमि पर लाने की चर्चा ,पता नहीं किस कारण से ,ज्यादा नहीं हुई ?(जयप्रकाश नारायण -एक जीवनी श्री राम बृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित पुस्तक के 'अगस्त क्रांति के अग्र दूत में )? देश के लिए जान की बाज़ी लगा देने वाले चाचा भतीजे की जोड़ी (स्व अमर शहीद बैकुंठ शुक्ल)का जन्म अब के वैशाली जिले के जलालपुर में हुआ था ।श्री बैकुंठ शुक्ल जी ने अंग्रेजों के दलाल ,जिसने भगत सिंह के मुकदमे में खिलाफ में गवाही दी थी उसे खोज कर मार दिया और फांसी पर चढ़ गए । श्री योगेंद्र शुक्ल जी पढ़ने में भी बड़े मेघावी थे और जी बी बी कॉलेज ,मुजफ्फरपुर के छात्र थे । गुलामी की जंजीरों में पढ़ाई भी रास नहीं आ रही थी । बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर ,महात्मा गांधी की पुकार पर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े । श्री योगेंद्र शुक्ल जी घोर गांधीवादी थे परंतु वह फिर भी यही मानते थे कि अंग्रेजों के साथ लड़ाई में सिर्फ अहिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा और हमे दूसरा रास्ता भी देखना ही होगा । श्री चंद्रशेखर आज़ाद जी की हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापक सदस्यों में यह चाचा - भतीजे की जोड़ी भी शामिल हुई और बड़े शुक्ल जी ने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जी को पिस्तौल चलाना सिखाया ।1932 में श्री योगेंद्र शुक्ल जी को काला पानी की सजा सुनाई गई और उन्हें अंडमान निकोबार की जेल में भेज दिया गया फिर 1936 में बिहार वापस लाया गया ।इनके बारे में एक चर्चित किस्सा है कि एक बार सोनपुर के पुल पर जब दोनो तरफ से घिर गए तो इन्होंने नीचे नारायणी में छलांग लगा दी और 27 km आगे निकल गए और अंग्रेज हाथ मलते रह गए । श्री शुक्ल बड़े ही गर्व से कहते थे कि मुझे जागते हुए में पकड़ना ,इन फिरंगियों के लिये मुश्किल है ।सच में यह जब भी पकड़ाए तो सोते ही हुए पकड़े गए ।सोनपुर पुल से कूद कर भागने के बाद एक सम्बन्धी के यहां ही सोते वक्त मुखबिरी के चलते गिरफ्तार हुए और दूसरी बार तो ट्रेन में सोते समय इन्हें घेर लिया गया था । ट्रेन वाली घटना में तो जब तक इनके दोनो पिस्तौल में गोली रही ,कोई सिपाही नजदीक तक नहीं आ सका ,अंत में इनके सिर पर एक भारी पत्थर का टुकड़ा लगा और योद्धा गिर पड़े ,तब अंग्रेजी हुकूमत के सिपाहियों ने इन्हें अपने घेरे में ले लिया ।इस मुठभेड़ में सिर पर लगी पत्थर ने इनके एक आंख की रौशनी भी कुछ कम कर दी थी और अंदरूनी चोट भी रह गयी । श्री राम बृक्ष बेनीपुरी जी की ही "मुझे याद है "का एक अंश जो "शेरे बिहार "से ही सम्बंधित है:-बेनीपुरी जी के ही शब्द , स्वभावतः ही मैं राजनीति में सदा ही उग्रपंथी रहा ।"युवक "के माध्यम से सदा ही बलिपन्थियों की प्रसंशा की जो सुगम राजनीति के रास्ते छोड़ कर जान हथेली पर लेकर चल करते थे।वैसे तो मैंने सदा खादी ही पहना मगर ?अपनी छाती पर पिस्तौल भी होने पर इनके साथ नहीं गया मगर इस बात का गर्व तो है कि इनके ही गीत गाने पर मुझे डेढ़ साल की जेल मिली (शहीद भगत सिंह पर लेख) छाती पर पिस्तौल वाली घटना भी बड़ी रोचक है ।मैं "युवक "निकाल रहा था ।इसमे "यतीन्द्र नाथ बोस ,करतार सिंह ,रास बिहारी बोस आदि पर लिख चुका था ।इस गुट के बड़े नेताओं से परिचय था ।एक रात एक मित्र के घर छत पर सोया हुआ था ,किसी चीज के स्पर्श से नींद खुली तो देखा कि एक सज्जन बगल में बैठे हुए हैं ,पहचानने में देर नहीं लगी कि उन्होंने कहा कि देखो तुम्हारे सीने पर क्या है और पिस्तौल सीने पर सटा दी और कहे कि "हमारी पार्टी में रहो या फिर वहां जाओ "और कह कर तारों की तरफ देख कर मुस्कुरा दिए ।मैं तो जीवन और मृत्यु के बीच की पतली लकीर को देखने लगा और कहा कि "मेरे हाथों को देखिए ,क्या इससे वह होगा भी ? इसमे कलम ही सज सकती है यह नहीं ?"उन्होंने कहा "ठीक है यही करो मगर हमारे साथ रह कर ।"मैंने कहा क्षमा कीजिये ,आपके ऐसा शेरदिल नहीं पाया ,क्षमा कीजिये कभी कमजोरी आ जाये तो उनके हाथों कुत्ते की जिंदगी भुगतनी पड़ेगी तो उससे अच्छी तो आपके हाथों से मौत मिले ?"तब वह गम्भीर होगये और फिर मुस्कुराते हुए मुझ पर कुछ जिम्मेदारी सौंप कर चलते बने ।निस्संदेह इन लोगों के साथ रहने पर खतरा था मगर उतना खतरा तो उठाने के लिये हमेशा ही तैयार रहा । एक दिन "युवक "का प्रूफ देखने के लिये सर्चलाईट के दफ्तर में था कि एक लड़का आया और कहा कि आपको कोई बाहर बुला रहा है । बाहर निकला तो "कहां वह हुलिया जिसकी तस्वीर सरकार ने हर जगह सटा कर टांगी हुई थी और कहां यह ,कितने वारण्ट थे ,घुंघराले बाल, मांग दो हिस्से में बांट कर सजाए हुए, बाल के गुच्छे आधी ललाट को ढंके हुए, मूंछ दाढ़ी सफाचट -चेहरे पर वह रौनक की लोग राजकुमार ही समझे ,रेशमी कोट ,चुन्नतदार धोती ,हाथ मे नफीस छड़ी और कलाई में सोने की घड़ी ।गौर करने पर पहचान सका ।देखते ही उन्होंने अपने प्रिय शब्द "साले"से सम्बोधित किया फिर कहा ,चलो ।यह तो जान चुका था कि इनलोगों से न तो यह कभी पूछना है कि कहां से आये थे और न तो कभी जानने की उत्सुकता होनी चाहिए कि कहां जाना है ।साथ हो लिया ।ज्योही सड़क पर आए की देख की उधर से कुछ पुलिस के जवान हमारी ही तरफ चले आ रहे हैं ।मैं घबड़ाया ।उन्होंने कहा कि नहीं यह मेरे लिये नहीं आ रहे ।कहीं ड्यूटी पर जा रहे हैं और मेरा हाथ पकड़ कर अपनी जेब पर सटा दिया और कहा समझ गए न ?दोनो जेब दो में में है और एक दर्जन गोली भरी हुई है ।जब तक मैं जगा हूँ ,कोई पकड़ नहीं सकता ।सचमुच जब वह पकड़े भी गए तो सोए ही में।स्टेशन चलो -मैंने कहा "स्टेशन पर आपके हुलिया के पर्चे टँगे हैं ?चलो उन्हें भी देख लें ?,मुस्कुराते हुए आगे बढ़े ।वह हुलिया पढ़ने लगे और हंसने लगे क्योंकि लिखा था कि "योगेंद्र शुक्ल के सिर पर चुटिया है और घुटने तक धोती पहनता है और देखने मे पहलवान लगता है । उन दिनों योगेंद्र शुक्ल नौजवानों के हीरो और सरकारी हलकों में त्रास की मूर्ति । 1937 में जेल से रिहा होने के बाद शुक्ला जी कांग्रेस के सदस्य होगये और कालांतर मुजफ्फरपुर जिले के उपाध्यक्ष भी बने ,साथ साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भी प्रमुख लोगों की गिनती में आगये ।1942 के "भारत छोड़ो"आंदोलन में फिर गिरफ्तार किये गए ।हजारीबाग जेल से जयप्रकाश जी के साथ दीवाल फांद कर निकलने वालों में एक शेर यह भी थे ।इतना ही नहीं यह करीब 100 किलोमीटर तक जयप्रकाश जी को अपने कंधे पर ही लेकर चलते रहे ।ऐसी बलिष्ठ काया के स्वामी थे श्री शुक्ला जी ।1942 के आंदोलन की अगर ठीक से व्याख्या की जाय तो श्री योगेंद्र शुक्ल जी का योगदान किसी से कम नहीं पाया जाएगा ।आज़ादी के बाद 1958 से 60 तक एक बार अल्प अविधि के लिये शुक्ल जी बिहार विधान परिषद में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से ,परिषद के सदस्य भी रहे ।आज़ादी की लड़ाई में जेल में अंग्रेजों की यातना से इनका शरीर भले ही टूट चुका था मगर हौसला बुलन्द ही रह मगर अंतिम समय मे शरीर ही टूट गया और आज की ही तारीख को 1966 में सर्वगारोहण ।हमे तो गर्व है कि यह हमारे पूर्वज हैं और हम भी इसी मिट्टी के लाल हैं जहां की धरती ने ऐसे क्रांतिकारी और देश प्रेमियों को जन्म दिया । विनम्र श्रद्धांजलि ।(साभार- महंत राजीव जी)